शहर.....

काटने को दौड़ता है अब तो ये शहर...कंक्रीट की बिल्डिंगो के अथाह जंगल और इन ऊंची-ऊंची बिल्डिगों पे चमचमाती लाइटें नकली सी लगती है....I
खिड़की पर टंगा वो कत्थई पर्दा, हर सुबह मुँह चिढ़ाता है मुझें...और
वो चॉकलेटी सोफ़ा ...?? वो तो हर शाम बिन बुलाये मेहमान की तरह देखकर आंखे तरेरता है....I
सामने टीवी पर भौंकते न्यूज़ एंकर्स देर रात तक कान फाड़ते है....I
चौड़ी सपास सड़को पर दौड़ती, वो वो काली सी कार हर सुबह कहीं ले तो जाती है मुझे, शाम को वापस भी छोड़ जाती है...पर सफ़र है की ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता.....I

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